जब भीतर का दीया जल जाता है ,
तब उस दीये को बाकी दीये की पहचान छूट जाती हैवह केवल बाकी दीयो में रौशनी ही देखहै ,
जो उस के भीतर भी जल रही है ।
पहचान केवल उस रोशनी की रह जाती है जो उसे कण कण में जलती हुए दीखती है।
चाहे वह रोशनी पेड़ो में हो पत्तो में हो फूलों में हो या जीव जंतु में ,
पथरों में हो या कलकल करती पानी की बूंदों में ,
साधारण मनुष्य में या बुद्ध , महावीर या मीरा में ,
पहचान केवल उस लौ की होती है जो
हर जगह दीख रही होती है
अब उस की ख़ुद की पहचान छुट चुकी है
वह
मट्टी दीये में केवल अब जलती लौ को ही देखता है
मट्टी के दीये का मीटना ...personality dissolves
लौ का जल उठाना
truth is known ..lighted within
अगर आँखों को माटी के दीये की पहचान होती है
तो वह कभी भी divine light के दरशन
नही कर पता .