दिलीप -- कैसे कोई खुद को जीवन से अनासक्त करे ?
अनीता -
शुन्य का दरवाज़ा ,संसार के भीतर से ही खुलता हैं . भीड़ से ही एक रास्ता परम एकाकीपन की तरफ खुलता हैं .जिसने भीड़ को पूरी प्रबलता से जीया हैं वही उसे पूरी प्रबलता से छोड़ने की कला भी सीख लेता हैं .एक छोटा बच्चा अपने नए खिलोने को बड़े आश्चर्य से देखा हैं . उसे जानने , उसे जीने और उस से खेलने की तीव्र इच्छा उस में होती हैं .सारा दिन वह उस खिलोने को हाथ में लिए घूमता हैं .उस के दिमाग में केवल वह खिलौना रहता हैं .सोते, जागते वह केवल उस खिलोने में ही डूबा रहता हैं .फिर एक दिन वह उस खिलोने को फेक देता हैं और आगे चल देता हैं .उस का पूरा इंटेरेस्ट ही उस खिलोने से ख़तम हो जाता हैं .दुनिया भी यही हैं .इस दुनिया रूपी खिलोने को जोर से पकड़ो .इस से खूब खेलो .पूरी तरह इसे समझ लो .इस के प्रति तुम्हारा लगाव, तुम्हारा attachment ही तुम्हारे इस से अलगाव de- tachment कारण बनेगा .
अनीता -
दिलीप तुमने कभी यह सोचा की इस दुनिया से लगाव कैसे हुआ ?
पहले तो यह देखना होगा कि इस दुनिया से लगाव कैसे हुआ ?
दिलीप तुम्हे संसार से लगाव कैसे हुआ यह प्रश्न अपने भीतर पूछ्ना .शुन्य का दरवाज़ा ,संसार के भीतर से ही खुलता हैं . भीड़ से ही एक रास्ता परम एकाकीपन की तरफ खुलता हैं .जिसने भीड़ को पूरी प्रबलता से जीया हैं वही उसे पूरी प्रबलता से छोड़ने की कला भी सीख लेता हैं .एक छोटा बच्चा अपने नए खिलोने को बड़े आश्चर्य से देखा हैं . उसे जानने , उसे जीने और उस से खेलने की तीव्र इच्छा उस में होती हैं .सारा दिन वह उस खिलोने को हाथ में लिए घूमता हैं .उस के दिमाग में केवल वह खिलौना रहता हैं .सोते, जागते वह केवल उस खिलोने में ही डूबा रहता हैं .फिर एक दिन वह उस खिलोने को फेक देता हैं और आगे चल देता हैं .उस का पूरा इंटेरेस्ट ही उस खिलोने से ख़तम हो जाता हैं .दुनिया भी यही हैं .इस दुनिया रूपी खिलोने को जोर से पकड़ो .इस से खूब खेलो .पूरी तरह इसे समझ लो .इस के प्रति तुम्हारा लगाव, तुम्हारा attachment ही तुम्हारे इस से अलगाव de- tachment कारण बनेगा .
जिस तरह तुम्हे लगाव का एहसास हुआ उसी तरह तुम्हे अलगाव का भी एहसास होगा .
दुनिया को जीते हुए ही तुम्हे दुनिया से विरक्ति होगी . यही मनुष्य की नियति हैं. जिसे जियोगे ही नहीं उस से विरक्त कैसे होगे ? हमने बुद्ध की कहानी पढ़ी हैं ,महावीर की कहानी पढ़ी हैं .दोनों ही राजा थे .धन ,सम्पदा से युक्त .दोनों ने ही बचपन से ही राजस्वा को इस कदर जीया, की जवानी आते आते उस जीवन से उन्हें विरक्ति हो गयी . किसे भी चीज़ या भाव को जब हम पूर्णता से जीते हैं तो उस से हमें विरक्ति हो जाती हैं .
दुनिया तुमने जी ली और अब विरक्ति हो रही हैं तो जंगले की तरफ मत भागो .घर बार छोड़ कर कही पहाड़ पर मत भाग जाओ . बल्कि भीतर भागो .शरीर और मान से पार भीतर की शुन्यता तरफ बढ़ो .
कई बार मैंने लोगो को कहते सुना हैं कि , मै पारिवारिक ज़िन्दगी छोड़ कर कुछ दिनों या महीनो के लिए पहाड़ पर या किसे आश्रम में एकांत में जा रहा हु . अरे कैसा एकांत ? ..यह एकांत भी तो संसार का ही हिस्सा हैं . तुम तो केवल जगह बदल रहे हो . बदलना हैं तो gestalt बदलो . शरीर हैं तो जीवन हैं .जब तक इस शरीर में जीवित हो , जीवन से तुम कही नहीं भाग सकते .पर हाँ जीवन के सागर में ही डुबकी लगाकर तुम भीतर के शुन्य से अमृतवा का मोती पा सकते हो .जीवन को जीते हुए , तुम में जीवन के प्रति एक गहरी समझ आयेगी .तुम्हे यह एहसास होगा की मै केवल यह शरीर मात्र नहीं हु .मै भीड़ का हिस्सा होते हुए भी नितान्त अकेला हु . भीतर कुछ खीचने लगेगा . भीतर कुछ बेचैनी का एहसास होगा .जीवन में सम्पूर्णता होने के बावजूद भी, भीतर एक खालीपन होगा .
यही तुम्हारी डोर होगी जो तुम्हे भीतर ले जाएगी .यही बेचैनी तुम्हे ज़िन्दगी का सही अर्थ ढूढने पर मजबूर करेगी.
_()_ हरी ॐ
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