आसू और हसी वो दो माध्यम हैं जिस से सुख या दुःख की अभिव्यक्ती होती हैं .जब परमात्मा का प्रेम एक झरने के सामान भक्त के हृदय की तरफ बहने लगता हैं ,तो यह पल भक्त के लिए अति आनंद का पल होता हैं .यह एक अभूतपूर्व अनुभव होता हैं .भीतर परमात्मा ऐसे बहता हैं, जैसे शिवलिंग पर लगातार दूध की धारा बह रही हो . ऐसे आनंद से शरीर मृतपाय हो जाता हैं .सारी उर्जा सिमट कर त्रिनेत्र पर चली आती हैं और बाकि पूरा शरीर मृत समान हो जाता हैं .ऐसी स्थिति में आँखों से लगातार आसू बहने लगते हैं .त्रिनेत्र शिव का केंद्र हैं यानि निराकार परमात्मा का केंद्र हैं और आंखे भी इसी केंद्र से चालित होती हैं .जब कोई बुद्ध या कोई सच्चा भक्त समाधी की अवस्था में हो और उसकी आँखों से झर झर आसू बह रहा हो , तो समझ लेना की उसकी भीतर की आंख, शिव का दर्शन कर रही हैं .और यह भ्रम भी मत रखना की समाधी केवल आंखे बंद कर के, बैठे या सोये हुए अवस्था में ही होती हैं .एक जागा हुआ व्यक्ति सदैव ही समाधिस्त रहता हैं . चाहे वह जागृत अवस्था में हो या सोया हुआ हो .चाहे वह बीच बाज़ार में हो या साधको के बीच प्रवचन करता हुआ हो .या फिर रोज़ मर्रा का दैनिक कार्य करता हुआ हो .एक सच्चे भक्त के आसू एक गहन प्रेम की निशानी हैं .यह मन के सोचे समझे दुःख या सुख की अभिव्यक्ति नहीं हैं .यहाँ आसू कमजोरी की निशानी नहीं हैं बल्कि भीतर निराकार होने की अनुभूति की निशानी हैं .एक भक्त अपनी अनुभूतियो से जुड़ा हो सकता हैं। परन्तु एक बुद्ध तो अपने शरीर से होने वाले अभिव्यक्तियों से भी परे होता हैं . वह न तो उसे सॊच समझ कर प्रकट करता हैं न ही उनके बहने या प्रकट होने में बाधा डालता हैं .सभी भाव उस पर बादलो के समान आते हैं और चले जाते हैं और वह एक विशाल आकाश के समान सदैव ही अनछुवा रहता हैं .
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