माँ मोमबत्ती को दोनों तरफ से जलाओ इस का क्या अर्थ हैं ?
अनीता जब मोमबत्ती हैं ही नहीं तो जलाओगे किसे ? मोमबत्ती का तो कोई अस्तित्व ही नहीं हैं .यह तो माया हैं की मोमबत्ती हैं , और उसे जलाना हैं .मोमबत्ती यानि साधक का व्यक्तित्व .माया जाल की वजह से यह हमें प्रतीत होता हैं की हम शरीर हैं और शरीर से जुड़ा व्यक्तित्व हैं . हम एक स्वतंत्र आत्मा हैं, जिसको परमात्मा से मिलना हैं .इस मिलन के लिए हमें प्रयास करना हैं . दोनों तरफ से मोमबत्ती को जलाना यानि कठिन प्रयास करना या साधना करना .माया के जाल में हमें मोमबत्ती का अस्तित्व दिखता हैं .जो यह यह भ्रम प्रकट करता हैं की हम पृथक हैं .उस सर्वभूम सत्ता से विभाजित हैं . मेरा अपना अस्तित्वा हैं और परमात्मा का अपना .जैसे ही माया का ब्रह्म जाल गिरता हैं .मोमबत्ती जैसा कुछ भी विद्यमान नहीं रहता .जब मोमबत्ती ही नहीं तो जलाओगे किसे ? यह प्रश्न खुद के अन्दर पूछो की कौन हैं जो मिलना चाहता हैं ? वह कौन हैं जिसे मिलने की इतनी तड़प हो रही हैं ? अगर मै निराकार ब्रह्म हु तो यह मिलने वाला कौन हैं ? यह मिलने के भाव उत्पन्न ही कहाँ से हो रहे हैं ? हर प्रश्न के भीतर ही उसका जवाब हैं .बस प्रश्न की गहराई में जाओ खुद खोज बिन करो .तुम्हारा जवाब स्वत ही तुम्हारे भीतर से प्रकट होगा .मन यह तुरंत ही स्वीकार कर लेता हैं की मै एक स्वतंत्र व्यक्तित्वा हु .मगर उसे यह स्वीकारने में कठिनाई होती हैं की मै केवल निराकार ,विस्तृत आकाश हु .यह मै होने का भाव इतना गहरा होता हैं की मै नहीं हु .इस को मन स्वीकार ही नहीं करता .मन को लगता हैं की मै जब तक प्रयास नहीं करुगा तब तक मै ब्रह्म से नहीं मिल सकता .अब देखो समुन्दर से थोडा सा पानी एक शीशी में भर लो .दोनों पानी के बीच आ गयी शीशी .शीशी का पानी यह मानने लगता हैं की में अलग हु .मुझे समुन्दर से मिलना हैं .यह तड़प भी जायज हैं .कई बरसो से ,अनंत काल से वह तो समुन्दर ही था .अब भी वह समुन्दर ही हैं .पर किसी पात्र में आने से उसे लगता हैं की वह पृथक हैं .हमें बस इस भाव को गिरना हैं की हम पृथक हैं .अब पानी चाहे शीशी में हो ,बाल्टी में हो ,या मटके में हैं तो वह समुन्दर ही .इस भाव को ही भीतर विस्तार दो की मै निराकार ब्रह्म हु .फिर मिलने की ज्यादा प्रक्रिया में ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ेगी .आधा काम तो यही हो गया .कठिनाई तब ज्यादा होती हैं जब शीशी होने का भाव बहुत गहरा हो . फिर मिलना भी कठिन लगता हैं .शीशी तो थोड़े समय के लिए प्रकट हुई हैं .इसका जीवन का समय निश्चित हैं .यह तो जैसे प्रकट हुई हैं वैसे ही विलीन हो जाएगी .बचेगा फिर पानी .तो पानी को पानी से क्या मिलना वह तो मिला ही हुआ हैं .मै निराकार ब्रह्म हु यही साधना करनी हैं .वह भी इस लिए की जाने अनजाने हमने सालो तक यह साधना की हैं की हम पृथक हैं .
हरी ॐ _()_
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