Sunday, July 1, 2012

यह यात्रा मेरी या तेरी नहीं यह यात्रा भगवान की भगवान तक हैं .

भक्त के ह्रदय  में भगवन गुणगुनाते हैं . जब छोटी थी तो भगवन शिव की आराधना स्वं ही  मेरे ह्रदय  से निकलती रहती थी . मेरे लिए मेरे माता पिता वही थे . बचपन से ही अपने दुःख सुख उनसे ही कहती थी . उनसे मिलने में मेरा शरीर और मन कभी बाधा नहीं बना .थोड़ी बड़ी हुई तो सोचती थी कि मेरे ह्रदय से हर पल प्राथना ही निकलती रहती हैं .मै   मीरा जैसी भक्त हु ....जिसे सोते जागते केवल एक ही धुन सवार थी प्रभु मुझे मिटा दे .मेरा हाथ थाम ले . शरीर किसे भी कार्य में व्यस्त हो मन हर पल उसके आलिंगन में था .हर भाव जी रही थी मगर केवल इस लिए कि उन्हें समझ सकू .भीतर मुझे कोई राह दिखाता  रहा .कभी नाभि केंद्र से हनुमान चालीसा गुंजित होने लगता ..
 सारा दिन ऐसे बजता  जैसे भीतर कोई धुनी जल रही हो .और उसकी खुशबू  के आनंद से आंखे भीगती रहती ...प्रेम से ह्रदय भरा रहता .कभी विष्णु जी कि स्तुति होने लगती ......कभी रोम रोम ॐ से गुंजित रहता ....
नाभि केंद्र की धुनी में जैसी लगातार ही हवन चल रहा हो ....हर पल ही स्वं की आहुति हो रही हो .
रोम रोम एक सुगधित एहसास और आनंद से भीगा रहता ...........

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